Shikari devi temple (शिकारी माता मंदिर मंडी हि प्र)
शिकारी माता मंदिर, चौहार घाटी में एक ऊँचे शिखर पर 10,768 फुट पर स्थित है. शिकारी माता के नाम से ही, इस शिखर को लोग अब शिकारी पर्वत के नाम से भी जानने लगे है. यहाँ पहुँचने के लिए बस या कार का उपयोग किया जा सकता है. बसें सिर्फ भूलह तक ही जाती है, और वो भी बहुत सिमित मात्रा में. जन्जैहली तक तो काफी बसें जाती है, वहां से आगे अक्सर लोग जीप किराए पर लेकर ही जाते हैं. क्योंकि भूलह से आगे बड़ी गाड़ी नहीं जा सकती. अगर सुंदर नगर की ओर से जाना हो तो चैल चौक, कांडा, बगस्याड, थुनाग और जन्जैहली होते हुए 94 km, की दुरी तय करनी होती है. इसी प्रकार रामपुर बुशहर से लुहरी होते हुए भी जा सकते है. आगे जाकर यही सड़क करसोग जन्जैहली वाली सड़क में, कोट नामक जगह पर मिलती है. अब एक रास्ता है करसोग से . एक नहीं बल्कि दो. एक अभी दो साल पहले ही बना है, यहाँ से शिकारी सिर्फ 20 km है. मगर यह रास्ता थोड़ी सी भी बारिश होने पर, चलने लायक नहीं रहता. दूसरा रास्ता है, छतरी होते हुए जो 106 km है. ये तो बात हुई स्थिति व् परिस्थिति की अब कुछ जानकारी शिकारी माता मंदिर के विषय में, जितना मैंने सुना या समझा है.
इस सुंदर स्थान पर महर्षि मार्कंडेय ने बहुत वर्षों तक माँ भगवती की तपस्या की थी. माता ने प्रसन्न हो कर दुर्गा रूप में दर्शन दिए. और इसी स्थान पर स्थापित हो गयी. बाद में जब कई हजारों वर्षों बाद यहाँ पाण्डवों का आगमन हुआ तो उन्होंने यहाँ माता का स्थान देख कर, माता का भवन बनाने का निश्चय किया, मगर समयाभाव के कारण मंदिर का निर्माण पूरा नहीं हो सका, अभी दीवारें ही बनी थी, कि पाण्डवों को यहाँ से प्रस्थान करना पड़ा, और मंदिर की छत नहीं डल सकी थी. आज भी यह मन्दिर बिना छत का ही है. बाद के वर्षों में बहुत से लोगों ने यहाँ छत डालने का प्रयास किया, मगर काम पूरा होने से पहले ही निर्माण ढह जाता है. यह माता का चमत्कार है या कोई अभिशाप, कि आज तक की गई सारी कोशिशें भी शिकारी माता को छत प्रदान न कर सकी.
जिस जगह पर यह मंदिर है, वह बहुत घने जंगल के मध्य ने स्थित है. बेशक जहाँ माता शिकारी का निवास है उसके आस-पास तीन चार सौ मीटर तक कोई पेड़-पोधा नहीं है. अत्यधिक जंगल होने के कारण यहाँ जंगली जीव-जन्तु भी बहुतयात में हैं. पुराने जमाने में लोग शिकार करने के लिए इस घने जंगल में आया करते थे. और पहाड़ की चोटी पर जहाँ माता का मंदिर है, वहीँ से जंगल में शिकार का जायजा लेते थे. कभी-२ मन्दिर में जाकर माँ को प्रणाम करते और आग्रह करते कि आज कोई अच्छा शिकार हाथ लगे, कई बार शिकारियों की मुराद भी पूरी हो जाती थी. तब तक यहाँ का नाम शिकारी नहीं था. लोग अक्सर शिकार की तलाश में आते रहते थे, तो यह स्थान शिकारगाह में ही तब्दील हो गया, शिकार वाला जंगल होने के कारण, लोगों ने इसे शिकारी कहना शुरू कर दिया. धीरे-2 यहाँ स्थापित दुर्गा माँ भी शिकारी माता के नाम से जानी जाने लगी और प्रसिद्ध हो गई.
हमारा बहुत वर्षों से मन था, कि शिकारी माता और कमरुनाग के दर्शन करें. एक बार पहले भी मैं और मेरी भार्या 2010 में यहाँ आए थे. तब मेरे एक मित्र अनिल शर्मा यहाँ थुनाग में तहसीलदार थे. मगर भारी बारिश की वजह से हम लोग भूलह से आगे नहीं जा सके थे. जब भी मैं कभी पुरानी फोटो एलबम को देखता तो वो ‘भूलह 0 km’ का पत्थर मुझे याद करवा देता कि अभी ये यात्रा अधूरी है. कमरुनाग जाने के लिए थुनाग से भी एक छोटा रास्ता है. शायद तब किस्मत में नहीं था. बाद में जब सन्दीप पवार का ब्लॉग पढ़ा, कमरुनाग और शिकारी माता की यात्रा पर लिखा हुआ, तो हमारी इच्छा और बलवती हो उठी. अबकी बार लेह-लदाख का प्रोग्राम निरस्त किया, और मंडी जिला का टूर बनाया. इसी का नतीजा था की आज सुबह 6 बजे दिन वीरवर 25 जून 2015 को अपनी यात्रा का अगला चरण शुरू किया और करसोग से शिकारी के लिए निकल पड़े.
2010 में यहाँ तक ही पहुँच पाए थे
अनिल शर्मा बच्चे के साथ
करसोग बाजार से बाहर निकल कर सनारली में (सनारली से ही शार्टकट है यहाँ से सिर्फ 18 km है शिकारी) दो-चार लोगों से शिकारी जाने की बाबत पूछा, तो सबने सलाह दी कि या तो आज के दिन का प्रोग्राम टाल दो, या फिर छतरी होते हुए जाओ. अब सीधा और छोटा रास्ता तो सिर्फ 20 km था. जबकि छतरी, जन्जैहली होते हुए 106 km. अब पीछे हटने का तो सवाल ही नहीं था. बेशक बारिश मूसलाधार थी, पर इरादे चट्टान से भी मजबूत थे. सो बिना वक़्त गंवाए छतरी वाली राह पकड़ ली. 8.00 बजे हम केलोधार नामक जगह पर थे. कुछ क्षुधा तंग करने लगी थी यहाँ एक ढाबा दिखाई पड़ा, जहाँ एक लड़की परांठे बना रही थी. हमने गाड़ी में से ही पूछा क्या ब्रेकफास्ट मिलेगा. तो पहले उसने अपने पिता से पूछा और हाँ कर दी. हमने डट कर दहीं के साथ आलू के परांठे खाए, तब आगे के बारे में सोचा. क्योंकि अपना उसूल है कि खुद का पेट और गाड़ी की टंकी हमेशा फुल करो, तब सफ़र पे निकलो. जिन जगहों को पार कर हम जन्जैहली पहुंचे, उन स्थानों के नाम इस प्रकार है, करसोग से सनारली, केलोधार, कतान्डा, नेहरा, सेरी-झाकड़, बरयोगी, छतरी, पैन्दापनी, रुछाड, मगरुनाला, कटनालू और जन्जैहली.
अब कहाँ 20 km और कहाँ 106 km और वो भी मुसीबतों भरा. खैर अब पक्की सड़क आ चुकी थी. बरखा रानी के भी रुकने के असार नज़र आने लग गए थे. कुछ ही देर में जन्जैहली पहुँच गए. अब कुछ जानी-पहचानी सी जगह नज़र आ रही थी. क्योंकि 2010 में यहाँ का दौरा हो चूका था. जन्जैहली से U टर्न लिया और सेब के बगिचों व् आलू के ढलानदार खेतों को निहारते हुए, भूलह पहुँच ही गए. आज भी हमने उसी खोखे वाले को चाय का निर्देश दिया, जिसके पास हमने 2010 में भी चाय पी थी. हमारे छोटे कुंवर ने कैमरा लिया और खुला मैदान देख कर, फोटोग्राफी करते हुए दूर तक निकल गए. उसके पीछे-2 रानी साहिबा और प्रिंस भी चले गये. अब तक गीली लकड़ियों पर चाय भी बन चुकी थी और बारिश बंद हो चुकी थी. मौसम साफ़ हो रहा था. आवाज लगा कर सबको बुलाया चाय नोश फरमाई.
जिस सफ़र की राह इतनी खुबसूरत हो मंजिल का अन्दाज लग ही जाता है
भूलह से शिकारी 9 km है. 3 km रायगढ़ तक पक्की सड़क है, उसके बाद बहुत बढ़िया गढो भरी और नालीदार सड़क है. रायगढ़ में जब सामने बोर्ड पर लिखा देखा सनारली 12 km, और गाड़ी का मीटर पुरे 100 km. दिल में क्या-2 विचार उठे होंगे वो लोग अच्छी तरह समझ सकते हैं, जिन्होंने पहाड़ों में सफर किया है. छ: घंटे में 106 km का सफ़र तय कर हम दोपहर 12.00 बजे शिकारी देवी की तलहट्टी में पहुंच गए. अब तक धुप खिल चुकी थी. यहाँ के सुंदर दृश्य देख कर तबियत खुश थी. रास्ते की सारी दुश्वारियां धूमिल हो गई. गाड़ी पार्क की कुछ फोटो लिए और चढ़ाई शुरू कर दी. 406 सीढियाँ चढ़ कर जब माता शिकारी के सानिध्य में पहुंचे, तो स्वर्ग से भी सुंदर जगह पर खड़े थे. शिकारी माता मंदिर की अहमियत और लोगों की सुविधाओं को ध्यान में रख कर हिमाचल सरकार ने भी इस दुर्गम जगह पर अपनी पूरी जिम्मेदारी निभाई है और सड़क सुविधा के साथ-2 बिजली पानी मन्दिर तक उपलब्ध करवा दिया है.
पार्किंग , और पार्किंग से नज़र आता शिकारी
अब फोटो में हमारी बारी
आस-पास की सबसे ऊँची चोटी पर आ कर ऐसा लग रहा था, मानो हम आकाश में पहुँच गए हों. सब कुछ हमारी नज़रों से निचे ही था, और हम सबसे ऊपर. ऐसे लग रहा था मानो हाथ बढाओ और असमान को छू लो. शिकारी माता को प्रणाम किया कुछ फोटो लिए लगभग एक घंटा इस जगह बिता कर निचे उतरना शुरू कर दिया, तलहटी में आ कर जहाँ गाड़ी खड़ी की थी, गर्मा-गर्म दाल चावल का लंच किया. अब आगे का पडाव था रोहांडा जहाँ से कल हमें कमरुनाग जाना था.
आगे की कहानी चित्रों की जुबानी
बिना छत वाला मंदिर शिकारी देवी
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