श्री मूल माहूनाग (बखारी कोठी - करसोग) " Mahung Temple "
महुनाग मंदिर, मंडी जिला के बखारी कोठी नामक स्थान पर स्थित है. यह स्थान शिमला से 93 km, करसोग से 35 km तथा चुराग से 14 km की दुरी पर समुद्र तल से लगभग 6200 फुट की ऊंचाई पर विद्यमान है.
महुनाग मंदिर की कहानी :
वैसे तो हिमाचल प्रदेश में ही महुनाग देवता के बहुत सारे मंदिर हैं, जिनमे इसे ही मूल महुनाग का ख़िताब हासिल है. दो और मंदिर भी काफी प्रसिद्ध व् चर्चित है, जिनमे से एक नालदेहरा से आगे बल्देंया में दांई ओर पहाड़ी के शिखर पर स्थित है, और दूसरा शिमला में शोघी से पहले बाँई ओर जो सड़क SSB कैम्प को जाती है, उससे कुछ आगे जाकर स्थापित है. हम बात कर रहे हैं मूल महुनाग मंदिर की, यहाँ पहुँचने के लिए शिमला से नालदेहरा, बसन्तपुर, ततापानी, माहोटा, अलसिंडी, चुराग होते हुए खील-कुफरी पहुंचना होता है. यहाँ से दांई और एक सड़क जाती है जो महुनाग मंदिर तक 12 km लम्बी है, यह सड़क यही समाप्त हो जाती है.बड़योगी मंदिर का रास्ता यहाँ से जाता है
धरमौड के पास एक सुंदर पहाड़ी जो हर यात्री को आकर्षित करती है
यहाँ से दांयें
इसी स्कूल के मैदान में मेला लगता है
सेब पर तो रंग नहीं आया मगर मैडम पुरे रंग में है
यहाँ महुनाग देवता को दानवीर कर्ण का अवतार माना जाता है. महुनाग की उत्पत्ति यहाँ के एक गाँव शैन्दल में हुई थी. जब एक किसान खेत में हल जोत रहा था, तो अचानक एक जगह आ कर हल जमीन में अटक गया, किसान के बहुत प्रयत्न करने पर भी जब हल बाहर नहीं निकला तो मिट्टी हटा कर देखा गया. तब पता चला कि यहाँ एक मोहरा (पत्थर की मूर्ति) जमीदोज है. इसे बाहर निकालने का प्रयास हुआ मगर जैसे ही मोहरा बाहर आया तो यह वहाँ से उड़ गया और बखारी में स्थापित हो गया. यह घटना सदियों पुरानी है, जो एक अलिखित इतिहास का हिस्सा है, तथा जनश्रुति पर आधारित है.
दानवीर कर्ण की एक छोटी सी कहानी :
महाभारत युद्ध के दौरान जब कर्ण मरनासन्न अवस्था में युद्ध भूमि पर पड़ा था, तो श्री कृष्ण ने पाण्डव सभा में उदास स्वर में कहा कि, वो देखो दानशीलता का सूर्य अस्त हो रहा है. कर्ण की प्रशंसा सुन कर अर्जुन को अच्छा नहीं लगा. उसनेश्री कृष्ण से कहा कि धर्मराज युधिष्ठिर में ऐसी कौन सी कमी है, जो आप दुश्मन खेमे के कर्ण की प्रशंसा कर रहे हैं. ये सुन कर श्री कृष्ण ने अर्जुन का संदेह मिटाने के लिए एक लीला रची और एक बूढ़े ब्राह्मण का रूप धर कर महायोद्धा कर्ण के पास जाने का विचार किया. तथा अर्जुन से कहा कि वह दूर रह कर ही सारा क्रियाकलाप देखे. यह कह कर श्री कृष्ण ने ब्राह्मण वेशधारण किया. और रक्तरंजित धुल से भरे कर्ण के घायल शारीर के पास जा कर कर्ण से प्रार्थना भरे शब्दों में कहा. “हे महा दानवीर कर्ण में आपका यश सुन कर आपके पास कुछ दान की अपेक्षा लेकर उपस्थित हुआ हूँ. कृपया मेरी सहयता कीजिए” ब्राह्मण के शब्द सुन कर कर्ण ने अपनी असमर्थता जाहिर की, मगर फिर सोचा कि ब्राह्मण देवता नाराज न हो जाए. यही सोच कर पास में पड़ा शस्त्र उठाया. और खुद के जबड़े पर वॉर कर, सोने का दांत निकाल कर भेंट कर दिया. मगर बूढ़े ब्राह्मण ने ये कहते हुए लेने से इनकार कर दिया कि ये जूठा है. अब कर्ण ने वरुण अस्त्र का प्रयोग कर पानी उत्पन किया.फिर जूठे दांत को धो कर प्रस्तुत किया. ये सब देख कर भगवान कृष्ण ने कर्ण को दर्शन दिए. और इस प्रकार कर्ण को मोक्ष प्राप्ति हुई तथा अर्जुन की शंका का समाधान हुआ.
मंदिर के खिड़की दरवाजों पर सुंदर नक्काशी
महुनाग देवता की मूर्ति
इनमे से एक लकड़ी की व् एक पत्थर की मूर्ति है
मंदिर के प्रांगण में
जब खम्बा उखड़ा नहीं तो तोड़ने की कोशिश की गई
हम पहले भी दो बार परिवार सहित यहाँ आ कर महुनाग देवता के दर्शन कर चुके हैं. इस बार जब मंडी जिला के भ्रमण का प्रोग्राम बना, तो हमने इसी रास्ते से जाने को तरजीह दी. रास्ते में सुंदर नजारों को निहारते सेब, अखरोट, खुबानी के बगीचों के बीच से होते हुए हम लोग 24 जून 2015 दिन बुधवार को 12.30 बजे महुनाग मंदिर में प्रवेश कर गये. अब यहाँ बाहरी भवन नया बन चूका है. पहले जब हम 2009 में यहाँ आये थे तो पुराने भवन को तोडा जा रहा था, जो लकड़ी व् पत्थर से निर्मित था. अब जो नया भवन बना है, वह पूरी तरह पत्थरों से निर्मित है. इसके दरवाजे खिड़कियाँ देवदार की लकड़ी से बनाए गऐ है, जिस पर बहुत ही सुंदर नकाशी की गयी है. मंदिर के दो प्रमुख भाग हैं एक बाह्य व् दूसरा आन्तरिक. दोनों भवनों के मध्य परिक्रमा मार्ग है. बाहरी भवन से अन्दर जाते ही महुनाग देवता के दर्शन होते हैं. बाँई और एक अखंड धुना जल रहा है. जनश्रुति के आधार पर एक कहानी है, यहाँ पर जल रहे अखण्ड धुनें के बारे में. कहते हैं यहाँ एक वृक्ष हुआ करता था, जिस पर आसमान से बिजली गिरी, और वह पेड़ जल उठा. तब से ही परम्परा बन गयी कि यह धुना कभी ठण्डा ही नहीं हुआ. एक और खास बात ये भी है कि इस धुनें से आज तक किसी ने भी कभी राख बाहर नहीं निकाली. सदियों से यह अनवरत जल रहा है, मगर इसकी राख कहाँ जाती है, यह एक रहस्य है. परिक्रमा करते हुए बाँए से दांई ओर आते हुए कुछ कमरे बने हुए है, जहाँ यात्री निवास कर सकते है. कुछ कमरे मंदिर के विभिन्न प्रयोग के लिए हैं. मंदिर के पुजारी आदि भी इन्ही कमरों में रहते है. आन्तरिक भवन जिसमे मंदिर है, उसकी बाहरी दीवारों पर महाभारत काल की कुछ कहानिया लिखी गयी है, जो दानवीर कर्ण से सम्बन्ध रखती है. जैसे ही दांई और से बाहर आते है बिलकुल सामने दो मोहरे (मूर्तियाँ) है जिनमे एक पत्थर की व् एक देवदार की लकड़ी की बनी हुयी है. लकड़ी की मूर्ति पर कुछ पुराने सिक्के चिपकाए गए हैं.
हमने पूजा अर्चना की पुजारी ने हमें प्रशाद व् आशीर्वाद दिया. बाहर आ कर कुछ फोटो लिए और सेब के बगीचे में से होते हुए मुख्य सड़क तक आ गये. सड़क से मंदिर की दुरी सिर्फ दो ढाई सौ मीटर ही है.
पूरा साल यहाँ भक्तों व् श्रद्धालुओं का ताँता लगा रहता है. 15 मई से 18 मई तक यहाँ मेले का आयोजन होता है. मई जून के महीने में ही नाग देवता की जातरें होती है. जिन लोगों ने मन्नत मांग रखी होती है, वह देवता के रथ को अपने गाँव-घर ले जाते है, और सारी-2 रात देवता का गुणगान करते है. देवता का गुर (मुख्य पुजारी) कभी भी अपने बाल नहीं काटता और देवता के हर आदेश का पालन करता है तथा देवता के आदेश व् वचन लोगों तक पहुंचाता है. महुनाग देवता कभी भी सतलुज नदी पार नहीं करते. बताते है कि एक बार कोई चोर देवता के मोहरे को चुरा कर ले गया, मगर वह उसे नदी पार न करवा सका. और हार कर चुपचाप देवता को वापिस मंदिर छोड़ में गया. सतलुज के दूसरी तरफ जो नाग देवता की जातरें होती है वहाँ पर बल्दैन्या से देवता की पालकी आती है. बल्दैन्या में जो महुनाग देवता है, उसे इन्ही का स्वरूप मान कर पूजा की जाती है.
पहले की गयी यात्रा के कुछ यादगार चित्र तब मंदिर का बाहरी भवन टूट रहा था
मेरे अलावा पूरा परिवार
2008
2009
यहाँ ठहरने के लिए मंदिर की धर्मशाला के अलावा PWD का विश्रामगृह भी है. यहाँ पूरा साल भर कभी भी जाया जा सकता है.
हमने डेढ घंटा यहाँ गुजारा और वापिसी की राह पकड़ ली क्योंकि ये सड़क आगे कहीं नहीं जाती है यहाँ से वापिस ही लौटना पड़ता है.
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