Jawalaji Tample kangra H.P. (ज्वालाजी मन्दिर काँगड़ा हि. प्र.)





Jwalaji mandir (jwalamukhi)



ज्वालाजी मन्दिर को ज्वालामुखी मन्दिर भी कहते है. यह मन्दिर भारत की 51 शक्तिपीठ तथा उतर भारत की मुख्य 9 शक्ति स्थलों में मुख्य है. हिन्दू पुराण साहित्य के अनुसार यहाँ माता सती की जीभ समाई थी. यहाँ पहुंचना बिल्कुल आसान है सड़क मार्ग द्वारा यहाँ आसानी से पहुंचा जा सकता है. यह शक्तिपीठ हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिला में स्थित है. दिल्ली से 436 km तथा चंडीगढ़ से 195 km की दुरी पर और समुद्र तल से 2,000 फुट पर स्थित है. नजदीकी हवाई अड्डा गग्गल (Kangra) जो मन्दिर से 46 km की दुरी पर है.
जैसा की विदित है कि हिमाचल प्रदेश तथा उतराखण्ड में अधिकांश मन्दिर पाण्डवों के अज्ञातवास के दौरान पाण्ड्वो द्वारा निर्मित किये गए है, और उसके बाद समय-2 पर किवदंतियों के अनुसार वह स्थान पुनः प्रकट हुए तथा आज के स्वरुप में हमारे सामने है.
एक किवदंती के अनुसार एक बालक हर रोज अपनी गायें चराने के लिए इस टिल्ले के आस-पास आया करता था. उन्ही गाय में एक थी जो घर आने के बाद दूध नहीं देती थी. इस कारण उस बालक को हर रोज घर में डांट पड़ती थी एक दिन उस बच्चे ने देखा कि एक निश्चित स्थान पर वह गाय खड़ी हुई है और एक सुंदर कन्या उसके थनों को मुह से लगाये हुए उसका दूध पी रही है. बच्चे ने यह बात घर में बताई तो धीरे-2 यह बात हर जगह फ़ैल गयी. राजा भूमि चन्द कटोच तक भी यह बात पहुंची, तो उसने खुद अपनी आँखों से उस दृश्य को देखा. जब वहाँ खोजबीन की गई तो उस स्थान पर धरती के गर्भ से ज्वाला निकलती हुई पाई गई. नतमस्तक हो कर राजा भूमि चन्द कटोच ने वहां मन्दिर निर्माण करवाया. बाद के वर्षों में महराजा रणजीत सिंह व् राजा संसार चन्द ने इस मन्दिर का निर्माण करवाया.
इस मन्दिर में किसी पिण्डी या मूर्ति की पूजा नहीं होती, बल्कि माता को ज्वाला के रूप में ही पूजा जाता है. और इसी ज्वाला के कारण यहाँ का नाम भी ज्वालाजी जी या ज्वालामुखी प्रसिद्ध हो गया. मन्दिर में अलग-2 जगह से 9 ज्योतियाँ जलती हुई नज़र आती है. जिन्हें महाकाली, अन्नपूर्णा, चंडी, हिन्गला, विध्यवासिनी, महालक्ष्मी, सरस्वती, अम्बिका व् अन्जीदेवी के प्रारूप से जाना जाता है. मन्दिर की देखरेख बाबा गोरखनाथ के अनुयायीयों द्वारा की जाती है.
                    डोगरा रेजिमेंट द्वारा बनाया गया द्वार अधिकतर श्रद्धालु इसी द्वार से प्रवेश करते हैं


ज्वालाजी मन्दिर का मुख्य प्रवेश द्वार जो नया बना है सफ़ेद संगमरमर के पत्थरों द्वारा निर्मित तथा निचे के चित्र में पुराना गेट बना है



ज्वालाजी के बारे में एक कथा जो बहुत ही प्रचलित है, कि एक बार ध्यानु नाम का माँ का परम भक्त बहुत से लोगों के साथ माता के दर्शनों के लिए जा रहा था, तो रास्ते में शहंशाह अकबर के सिपाहियों ने पकड़ कर उसे शहंशाह के दरबार में पेश किया, जब अकबर ने ध्यानु के मुख से माता के विषय में सुना तो उसने माता की परीक्षा लेने की ठानी. उसने ध्यानु के घोड़े का सिर कलम कर दिया और ध्यानु को कहा कि अगर तेरी माता में इतनी शक्ति है, तो इस घोड़े को पुनर्जीवित कर के दिखाए. ध्यानु ने माता का ध्यान किया और अपने विश्वास को कायम रखने की गुहार लगाई, अब माता ने अपना चमत्कार दिखाया और घोड़े का सिर उसके धड़ से जुड़ गया तथा घोडा जीवित हो उठा. जब अकबर को ज्योतियो के बारे में पता चला तो उसने इसे काल्पनिक समझ कर इन ज्योतियो को बुझाने की कोशिश की. नाकाम रहने पर उसने एक नहर का निर्माण करवाया और उस नहर का पानी इन ज्वालाओं पर ले गया. मगर ज्वाला पानी के ऊपर भी जलती रही. इस दृश्य को आज भी गुरु गोरख नाथ के चेले प्रदर्शित कर एक महाशक्ति होने आभास करवाते हैं. इस से प्रभावित हो कर उसने सवा मन सोने का एक छत्र माँ के चरणों में अर्पित किया और गर्व से कहने लगा कि मेरे जैसा प्रतापी शहंशाह आज तक कोई नहीं हुआ, जिसने इतना बड़ा सोने का छत्र चढाया हो. यह देख कर माता ने कुछ ऐसा चमत्कार किया कि वह छत्र अपनी सोने की चमक खो बैठा और किसी अनजान धातु में तबदील हो गया. यह छत्र आज भी टूटे हुए घमण्ड के प्रतिक के रूप में मन्दिर में सुरक्षित है.

यही वो छत्र है जो अकबर ने माता को भेंट किया था और घमण्ड के कारण एक अनजान धातु में परिवर्तित हो गया था


वैसे तो मैं माता ज्वाला के बहुत बार दर्शन कर चूका हूँ. दो बार वहां से माता की पवित्र ज्योति भी जागरण के लिए ला चूका हूँ. मगर सबसे अहम यात्रा वो थी जब हम 2003 में अपने माता- पिता के साथ दर्शन करने गये थे. तब हमारे छोटे राजकुंवर मात्र 15 महीने के थे और साथ में मेरे मित्र गरेवाल भी हमारे सहयात्री थे.

     निचे के तीनो चित्र 2003 के है
बड़े राजकुंवर कन्द्रौर पुल के सामने मेरे मित्र गरेवाल के साथ कन्द्रौर पुल तब तक एशिया का सबसे बड़ा सड़क मार्ग पूल आँका जाता था यह सतलुज नदी पर बना है


                            माता-पिता सहित पूरा परिवार मगर अब पिता जी हमारे बीच नहीं है


मन्दिर में दर्शन करने का सबसे सही समय तब है, जब नवरात्रे न हों क्योंकि नवरात्रों में यहाँ अत्यधिक भीड़ होती है. और तीन से चार घन्टे तक लाइन में खड़े हो कर सिर्फ गोल-2 ही घूमना पड़ता है, तथा दर्शन भी ठीक से नहीं कर सकते. वैसे तो मन्दिर प्रशासन ने काफी अच्छे इंतजाम किये है मगर भारी भीड़ के आगे मुश्किलों का सामना तो करना ही पड़ता है. “और कहते भी है कि जिस यात्रा में कष्ट न हो वो यात्रा ही क्या” जब हम पहले जाते थे तो बारिश या धुप में बाजार से हो कर गुजरना पड़ता था, मगर अब पुरे बाजार के रास्ते में छत डल चुकी है. बस एक ही चीज सबसे ज्यादा दुखी और परेशान करती है, वो है भिखारी, छोटी-2 बच्चियाँ भी खुद को माता का रूप बता कर लोगों को इमोशनल ब्लैकमेल करती है, और न चाहते हुए भी आप भीख देने का गुनाह कर ही बैठते है. यहाँ रहने व् खाने की कोई समस्या नहीं है. बहुत सी धर्मशाला है, होटल भी हर स्तर के है. इसके अतिरिक्त स्थानीय लोग अपने घर के कमरे भी बहुत वाजिब रेट पर ठहरने के लिए उपलब्ध करवाते है.

                                  भीड़ न होने के कारण मन्दिर में शान्ति है



                                   मन्दिर का गुम्बद सोने की पर्त से मढ़ा गया है

                                  माँ ज्वाला का शयनकक्ष जिसे शयन भवन कहा जाता है


आपकी जानकारी के लिए मन्दिर के कार्यक्रम की समयसारिणी उपलब्ध है
1. सुबह कि आरती 5.00
2. दोपहर कि आरती 12.00 बजे
3. संध्या आरती 7.00 बजे
4. शयन आरती 10.00 बजे

                                                    “जय माँ ज्वाला”



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